महाराष्ट्र सरकार को एक मामले में उचित मुआवजा राशि नहीं देने पर कड़ी फटकार लगाई और कहा कि अगर निर्धारित समय पर राज्य सरकार ने जवाब नहीं दिया तो राज्य सरकार की योजनाओं को बंद करवा दिया जाएगा। दरअसल, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की अदालत में महाराष्ट् में सरकार द्वारा एक व्यक्ति की जमीन अवैध रूप से कब्जाने और उसका उचित मुआवजा नहीं देने के मामले में सुनवाई हो रही थी। इस मामले में राज्य सरकार ने करीब छह दशक पहले एक व्यक्ति की संपत्ति पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया था और इसके बदले में उसे वन भूमि आवंटित कर दी थी।
पीड़ित व्यक्ति ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और उचित मुआवजे की मांग की थी। वरिष्ठ वकील ध्रुव मेहता इस मामले की पैरवी कर रहे थे। इस पर कोर्ट ने सख्त चेतावनी देते हुए कहा कि अगर राज्य सरकार जमीन खोने वाले व्यक्ति को उचित मुआवजा नहीं देती है, तो वह “लाडली बहना” जैसी योजनाओं को रोकने का आदेश देगी और अवैध रूप से अधिग्रहित भूमि पर बने ढांचों को गिराने का भी आदेश देगी। महाराष्ट्र सरकार का पक्ष रख रहे वकील से जस्टिस गवई ने कहा कि उस जमीन का मुआवजा कितना होना चाहिए? एक उचित राशि तय कर आप अदालत को बताएं।
जस्टिस गवई ने राज्य के वकील से सख्त अंदाज में कहा, ” पीड़ित को कितना मुआवजा दिया जाए, इस पर एक उचित आंकड़ा लेकर आइए। आप अपने मुख्य सचिव से कहिए कि वे सीएम से बात करें। वरना, हम राज्य सरकार की सभी योजनाओं को रोक देंगे।” लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक जस्टिस गवई ने आगे कहा, “हम आपकी सभी लाडली बहना…लाडली बहू को रोक देंगे…अगर हमें यह राशि उचित नहीं लगती है तो हम अवैध कब्जे वाली जमीन पर बनाई गई संरचना को ध्वस्त करने का निर्देश देंगे, भले ही वह राष्ट्रीय हित में हो या सार्वजनिक हित में हो। हम उसे रहने नहीं देंगे और सब कुछ ध्वस्त करने का निर्देश देंगे। हम 1963 से आज तक उस भूमि का अवैध रूप से उपयोग करने के लिए मुआवज़ा देने का निर्देश देंगे और फिर अगर आप फिर से अधिग्रहण करना चाहते हैं, तो उसे नए (भूमि अधिग्रहण) अधिनियम के तहत कर सकते हैं।”
सुनवाई की शुरुआत में जब कोर्ट ने राज्य के मुख्य सचिव की उपस्थिति को लेकर सवाल पूछा और उन्हें कोर्ट में बुलाने को कहा तो राज्य सरकार के वकील ने कोर्ट से गुहार लगाई कि ऐसे निर्देश पारित करने से छूट दी जाय। इस पर जस्टिस गवई ने स्पष्ट रूप से कहा, “यदि कोई अधिकारी मामले में सहायता करने के लिए आपके खिलाफ (कार्रवाई) करता है तो हम उस अधिकारी को उसकी असली जगह दिखा देंगे। हम अपने कानूनी अधिकारियों की भी रक्षा करने के लिए यहां हैं।”
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ याचिकाकर्ता टीएन गोदावर्मन के मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें दावा किया गया था कि उसके पूर्वजों ने 1950 के दशक में पुणे में 24 एकड़ जमीन खरीदी थी। बाद में राज्य सरकार ने 1963 में उसे सरकारी जमीन बताकर उस पर कब्जा कर लिया। पीड़ित पक्ष ने इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट से जीत हासिल की। इसके बाद, डिक्री को निष्पादित करने की मांग की गई, लेकिन राज्य सरकार ने यह कहकर डिक्री निपटाने से इनकार कर दिया कि जमीन एक रक्षा संस्थान को दे दी गई है। रक्षा संस्थान ने अपनी ओर से दावा किया कि वह विवाद का पक्ष नहीं है इसलिए उसे उस भूखंड से बेदखल नहीं किया जा सकता है।
इसके बाद पीड़ित पक्ष बॉम्बे हाई कोर्ट पहुंचा, जहां राज्य सरकार को उसके बदले में जमीन आवंटित करने का आदेश दिया गया। 2004 में सरकार ने एक वन भूमि पीड़ित पक्ष को आवंटित कर दी थी। अब पीड़ित पक्ष अपनी जमीन के एवज में उचित मुआवजे की मांग कर रहा है।