पिछला हफ्ता तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के लिए एक के बाद एक कूटनीतिक सफलताएं लेकर आया। दशकों से तुर्की सरकार के ख़िलाफ़ हथियारबंद संघर्ष कर रही कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (PKK) ने खुद को भंग करने का फैसला लिया, जिसे अर्दोआन सरकार की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है।
इस बीच अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अर्दोआन के साथ संबंधों को और प्रगाढ़ करते हुए सीरिया से तुर्की पर लगे कुछ प्रतिबंध हटाने की घोषणा की। तुर्की की मध्यस्थता में यूक्रेन और रूस के बीच शांति वार्ता का आयोजन भी हुआ, जिसने अर्दोआन की अंतरराष्ट्रीय भूमिका को और मज़बूत किया।
वेटिकन से भी तुर्की को बड़ी कूटनीतिक कामयाबी मिली, जब नए पोप ने जल्द ही तुर्की दौरे की घोषणा की। साथ ही, लीबिया में तुर्की समर्थित प्रधानमंत्री ने अपनी सत्ता पर नियंत्रण और मज़बूत किया। पाकिस्तान की ओर से भी भारत के खिलाफ राजनीतिक समर्थन देने पर अर्दोआन का आभार जताया गया।
वहीं, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बीते दो सप्ताह कई मोर्चों पर कठिन साबित हुए। 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए हमले के बाद भारत ने 6-7 मई की दरम्यानी रात पाकिस्तान के भीतर सैन्य कार्रवाई की। इसके जवाब में दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ा, जो बाद में युद्धविराम तक पहुँचा।
हालाँकि युद्धविराम की पहल को लेकर अमेरिका ने श्रेय लेने की कोशिश की, जिससे यह संदेश गया कि भारत अमेरिकी दबाव में काम कर रहा है — यह धारणा मोदी सरकार के लिए घरेलू और कूटनीतिक स्तर पर असहज करने वाली हो सकती है।
इन घटनाओं ने एक ओर जहां तुर्की की वैश्विक साख को नई ऊँचाई पर पहुँचाया है, वहीं भारत को अपनी रणनीतिक स्थिति को नए सिरे से परिभाषित करने की चुनौती दी है।