पिछले हफ़्ते तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और रणनीतिक मोर्चे पर कई बड़ी सफलताएँ लेकर आया। एक के बाद एक घटनाओं ने उन्हें क्षेत्रीय और वैश्विक मंच पर मज़बूत नेता के तौर पर स्थापित किया।
तुर्की में सशस्त्र अलगाववादी आंदोलन चला रही कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) ने खुद को भंग करने का ऐलान कर दिया, जो अर्दोआन सरकार के लिए एक बड़ी जीत मानी जा रही है। वहीं, अर्दोआन के करीबी माने जा रहे सीरिया पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रतिबंध हटाने की घोषणा की है, जिससे तुर्की की विदेश नीति को बल मिला है।
तुर्की ही वह स्थान बना जहाँ रूस और यूक्रेन के बीच महत्वपूर्ण शांति वार्ता आयोजित हुई। इससे अर्दोआन की मध्यस्थ शक्ति की वैश्विक पहचान को और मजबूती मिली है। इसी दौरान नए पोप ने भी तुर्की दौरे की घोषणा कर दी, जो वेटिकन और अंकारा के रिश्तों में नई गरमाहट की ओर इशारा करता है।
वहीं, लीबिया में तुर्की समर्थित प्रधानमंत्री ने सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली है, और पाकिस्तान ने भारत विरोधी रुख पर अर्दोआन को खुले तौर पर धन्यवाद कहा है। ये घटनाएं बताती हैं कि तुर्की की क्षेत्रीय रणनीति कितनी सफल हो रही है।
इसके उलट, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बीते दो सप्ताह कई चुनौतियाँ लेकर आए। 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए हमले के बाद भारत ने 6 और 7 मई की दरम्यानी रात को पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की। इस जवाबी कार्रवाई के बाद दोनों देशों के बीच तनाव काफी बढ़ गया।
हालांकि बाद में युद्धविराम की घोषणा हुई, लेकिन इसका श्रेय अमेरिका द्वारा लिए जाने से भारत की कूटनीतिक स्थिति पर सवाल उठे। अंतरराष्ट्रीय संदेश यह गया कि भारत, अमेरिका के निर्देशों के अनुसार काम कर रहा है, जिससे स्वतंत्र रणनीतिक छवि को धक्का लगा है।
इस प्रकार जहाँ एक ओर अर्दोआन अपनी विदेश नीति और क्षेत्रीय प्रभाव के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं, वहीं नरेंद्र मोदी को एक बार फिर देश की सुरक्षा और कूटनीतिक स्वायत्तता के सवालों का सामना करना पड़ रहा है।