इंडिया गठबंधन के दल चुनाव में नहीं चाहते कांग्रेस का साथ, क्या ये कारण हैं जिम्मेदार?

INDIA गठबंधन के दलों के बीच महाराष्ट्र और झारखंड में सीटों के लिए बहुत मगजमारी हुई है. पर 15 राज्यों में 48 विधानसभा सीटों पर उपचुनावों को लेकर भी विपक्षी खेमा आपस में लड़ने मरने को तैयार है. विधानसभा चुनावों में भी बड़ी मुश्किल से इंडिया गठबंधन की पार्टियां आपस में गठबंधन को तैयार हो रही हैं. गठबंधन के पीछे जो समस्या आ रही है, उसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस को ही केंद्र में माना जा रहा है. इसी तरह उपचुनावों को लेकर विपक्षी खेमे में जो तनाव की स्थिति है उसे देखने से यही लगता है कि कहीं न कहीं क्षेत्रीय पार्टी कांग्रेस को तवज्जो देने का मूड में नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में, समाजवादी पार्टी ने जो रुख दिखाया है उससे भी यही लगा था. कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी चाहती ही नहीं थी कि कांग्रेस से समझौता हो. आखिर कांग्रेस को दो ऐसी सीटें देने का फैसला जहां से जीतना असंभव हो, क्या कहा जाएगा? हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) ने भी ठेंगा दिखा दिया है. हालांकि सीपीआई (एम) कहना है कि बातचीत में देरी से थककर छह उपचुनावों सीटों के लिए उम्मीदवार घोषित किया गया है. आइये देखते हैं कि क्या कारण हो सकते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने के बजाय अकेले मैदान में उतरना चाहती हैं.

सबसे बड़ी समस्या ये है कि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का वोट बैंक एक ही है. क्षेत्रिय दलों को लगता है कि अगर कांग्रेस को मौका मिला तो भविष्य में छोटी पार्टियां महत्वहीन हो जाएंगी. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का आधार मुस्लिम, पिछड़े और दलित हैं. कांग्रेस के आने से जाहिर है मु्स्लिम वोटर्स और दलित वोटर्स के जाने का खतरा है. लोकसभा चुनावों में जिस तरह कांग्रेस के कैंडिडेट्स ने वोट पाए थे वो इसी का नतीजा था. उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में मुसलमानों को जितना भरोसा कांग्रेस पर है उतना क्षेत्रीय पार्टियों पर नहीं है. यही हाल दलितों का भी है. यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी हो या वाम मोर्चा कोई भी दिल से कांग्रेस को मजबूत होना नहीं देखना चाहता है.

कांग्रेस खुद भी कई बार क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जो व्यवहार करती है वह बड़े भाई वाला न होकर प्रतिद्वंद्वियों वाला हो जाता है.जैसे हरियाणा में आम आदमी पार्टी के साथ इस तरह का व्यवहार किया कांग्रेस ने जैसे वो उसकी सहयोगी पार्टी न होकर उसकी विरोधी पार्टी है. यही हाल समाजवादी पार्टी के साथ मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों और हरियाणा विधानसभा चुनावों के समय हुआ. आखिर भारतीय जनता पार्टी बिहार और महाराष्ट्र में अधिक विधायक और ताकतवर होने के बावजूद दूसरी पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री बनाए हुए है कि नहीं? क्या उम्मीद किया जा सकता है कि कांग्रेस की केंद्र में सरकार होती तो बिहार और महाराष्ट्र जैसा गठबंधन कभी वो करती? साथी दलों में विश्वसनीयता का भाव तभी आएगा जब कांग्रेस उनके लिए कुर्बानी देने की तैयार दिखेगी. 

कांग्रेस पार्टी में कोई भी कद्दावर जमीन से जुड़ा नेता नहीं रह गया. एक मात्र राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपने परिवार के नाम पर आज भी जनता के बीच अपनी जगह बनाए हुए हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दल, संघर्ष, व्यक्तित्न, कार्यकर्ता सभी मामलों में कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा प्रभावी हैं. आखिर वो कांग्रेस के दबाव में क्यों आएंगे? यही हाल पंजाब और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का है, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे का भी यही हाल है. झारखंड में हेमंत सोरेन भी कहीं से कम नहीं हैं. आखिर ये पार्टियां अपने इलाके में किस मामले में कांग्रेस से कमजोर हैं. कांग्रेस को समझना होगा कि झुकना तो इनके सामने पडे़गा ही.

कांग्रेस पर यह आरोप बार-बार लगता रहा है कि पार्टी अंतिम समय तक फैसले नहीं लेती है. समय से बातचीत तक शुरू नहीं कर पाती है पार्टी. पार्टी के सिस्टम में ही दोष है. पश्चिम बंगाल में, वाम-कांग्रेस गठबंधन टूटने का यही कारण रहा है. वाम मोर्चा ने उपचुनाव वाली 6 सीटों के लिए कांग्रेस से परामर्श किए बिना उम्मीदवारों की घोषणा कर दी. वाम मोर्चा ने गठबंधन न होने का कारण कांग्रेस की लेट लतीफी को ही बताया है. कांग्रेस की ओर से फैसले लेने में इतना देर लग रही थी वाममोर्चे ने अकेले लड़ने का फैसला कर लिया. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनावों के दौरान इसी तरह के आरोप कांग्रेस पर लगाए थे. कांग्रेस अंतिम दिन तक समस्या को टालती रहती है, फैसले लेने में देर करती और अंत में चीजें हाथ से निकल जाती हैं.
 

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