भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी कला से दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया। इन्हीं में से एक हैं महान सितार वादक उस्ताद विलायत खान। अपने असाधारण कौशल, अनोखी ‘गायकी अंग’ शैली और स्वाभिमान के लिए जाने जाने वाले उस्ताद विलायत खान को ‘सितार का बादशाह’ कहा जाता है। आज उनकी 97वीं जयंती पर, उनकी कला और सिद्धांतों के प्रति उनका गहरा समर्पण हमें प्रेरित करता है।
एक महान संगीत विरासत के वाहक
उस्ताद विलायत खान का जन्म 28 अगस्त, 1928 को पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के गौरीपुर में हुआ था। वे प्रसिद्ध इमदादखानी घराने से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता, इनायत खान, अपने समय के एक प्रमुख सितार और सुरबहार वादक थे। दुर्भाग्यवश, बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया, जिसके बाद उनके परिवार ने उनकी संगीत शिक्षा का जिम्मा संभाला। विलायत खान ने अपनी लगन और मेहनत से न केवल अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया, बल्कि अपने घराने में सबसे प्रसिद्ध नाम बन गए। उनके सम्मान में उनके घराने को विलायतखानी घराना भी कहा जाने लगा।
उन्हें अपने पिता इनायत खान और दादा इमदाद खान के साथ मिलकर ‘गायकी अंग’ या ‘विलायतखानी बाज’ के विकास का श्रेय दिया जाता है। इस अनूठी शैली में सितार से ऐसी धुनें निकलती थीं, जो गायन की तरह भावनाएं और आलाप दर्शाती थीं। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नई पहचान दिलाई और दुनिया भर में भारत का गौरव बढ़ाया।
सरकारी सम्मानों को ठुकराना
उस्ताद विलायत खान का स्वाभिमान और अपनी कला के प्रति उनका सम्मान उन्हें किसी भी सरकारी सम्मान से ऊपर रखता था। 1960 के दशक में जब भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री देने की घोषणा की, तो उन्होंने इसे लेने से साफ इनकार कर दिया। लेखिका नमिता देवीदयाल की किताब ‘द सिक्स्थ स्ट्रिंग ऑफ विलायत खान’ में इसका जिक्र है। उनका मानना था कि संगीत में उनका योगदान किसी भी सरकारी पुरस्कार से ऊपर है। उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें कोई पुरस्कार लेना भी होगा, तो वह उसे तब लेंगे जब वे खुद सरकार से कहेंगे कि वे इसके लिए तैयार हैं।
साल 2000 में, भारत सरकार ने उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित करने की घोषणा की। लेकिन इस बार भी उन्होंने इसे लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनके शिष्य पंडित रवि शंकर को पहले भारत रत्न (भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान) दिया गया था, और यह उन्हें स्वीकार नहीं था कि एक गुरु को उनके शिष्य के बाद सम्मानित किया जाए। यह घटना उनकी कला के प्रति सम्मान और उनके सिद्धांतों की दृढ़ता को दर्शाती है।
भारत में प्रदर्शन से इनकार
अपने करियर के एक पड़ाव पर उस्ताद विलायत खान ने भारत में प्रदर्शन करना बंद कर दिया था। उनका मानना था कि भारत में शास्त्रीय संगीत को वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जिसका वह हकदार है। उन्होंने कहा था कि जब तक संगीत को सही सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक वह यहां नहीं बजाएंगे। कई सालों तक उन्होंने ऐसा ही किया और सिर्फ विदेशों में ही अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किए। यह उनके सिद्धांतों और संगीत के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
विलायत खान का 13 मार्च 2004 को मुंबई, भारत में 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया था। मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया था कि विलायत खान को फेफड़ों का कैंसर, मधुमेह और हाई ब्लड प्रेशर की शिकायत थी। उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियां और दो बेटे शुजात खान और हिदायत खान हैं। दोनों बेटे सितार वादन की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
उस्ताद विलायत खान का जीवन और उनके सिद्धांत हमें यह सिखाते हैं कि कला और स्वाभिमान का रिश्ता कितना गहरा हो सकता है। आज भी उनकी धुनें और उनकी विरासत भारतीय शास्त्रीय संगीत प्रेमियों के दिलों में जीवित है।